आज ही के दिन एक साल पहले मानवीय अधिकारों के स्तंभ तथा कश्मीरी राष्ट्रवादी प्रोफेसर सय्यद अब्दुल रहमान गिलानी अलविदा कह गए। उनकी बेटी और बेटा इस लेख द्वारा उन्हें याद करते हुए श्रद्धांजलि अर्पित कर रहे हैं।
उस मिट्टी के टीले के साथ हमारे रिश्ते को पूरा एक साल हो गया है। पिछले एक साल से कश्मीर में हमारे पुशतैनी घर से कुछ सौ मीटर की दूरी पर स्थित धरती का टीला हमारी जिंदगी का सबसे महत्वपूर्ण स्थान बन गया है। सुख और दुख में, जीत और हार में, शांती और अशांती में, हम उस मिट्टी के टीले की ओर भागते है। यह टीला डाॅ. सय्यद अब्दुल रहमान गिलानी की कबर है। दोस्तों के लिए वो एस. ए. आर. थे, हमारे लिए अब्बू, हमारे प्यारे पिता, हमारे डैड।
अब्बू ने अचानक 24 अक्टूबर 2019 को हमें छोड़ दिया। इस की हम कल्पना भी नही कर सकते थे क्योंकि उनको हम एक अजीत नायक के तौर पर जानते थे जिसने अपने जीवन के कम समय में ही मौत को बार-बार हराया था। उनकी अचानक मौत का दुख आज भी ताजा है। हमारे परिवार को बाद में पता चला कि उनके बहुत सारे दोस्तों और सहकर्मियों द्वारा कई बार यह भावना साझीं की गई थी, जिस भावना से उन्होंने सालों-साल काम किया और अनेकों को प्रेरित किया।
पिछले एक साल से कश्मीर में हमारे पुशतैनी घर से कुछ सौ मीटर की दूरी पर स्थित धरती का टीला हमारी जिंदगी का सबसे महत्वपूर्ण स्थान बन गया है। सुख और दुख में, जीत और हार में, शांती और अशांती में, हम उस मिट्टी के टीले की ओर भागते है।
उन्होंने अपना जीवन एक अध्यापक, शिक्षक और मानवीय अधिकारों के रक्षक के तौर जीया जिसने सबसे ज्यादा दबें कुचले लोगों के हक की परवाह की और निडरता से बात की। खासकर वह कश्मीर की स्थिति के बारे जागरूक थे और उन्हें अपने लोेगों के प्रति न्याय और स्वयं-निर्णय की चिंता थी जिसने उन्हें ऐसा व्यक्ति बनाया था, और जिसके कारण उन्होंने अपनी जिंदगी ऐसे जी थी।
जब वह अपनी पढ़ाई के लिए 1990 में कश्मीर से बहार गए तभी उन्होंने सेवा करने और सिखाने के लिए घर वापिस आने का सपना देखा था। हालांकि, मौजूदा राजनीतिक स्थिति में घर वापिस आना अनुकूल नही था, इसलिए उन्होंने दिल्ली विश्वविद्यालय में अरबी के प्रोफैसर के तौर पर अध्यापन शुरू किया।
उन्होंने अपना जीवन एक अध्यापक, शिक्षक और मानवी अधिकारों के रक्षक के तौर जीया जिसने सबसे ज्यादा दबें कुचले लोगों के हक की परवाह की और निडरता से बात की।
दिल्ली मे हमारी जिंदगी 2001 में 14 दिसंबर तक बिलकुल ठीक चल रही थी जब कयामत का दिन आया। अब्बू को भारतीय संसद के हमले में शामिल होने के झूठे आरोप में दिल्ली पुलिस के डरावने विशेश सैल ने गिरफ्तार कर लिया। इस तरह हमारी जिंदगी में अंधेरे का दौर छा गया। यह वह दौर भी था जिसने हमें पहले से ज्यादा मजबूत बनाया और जिसने हमें बहुत ही कोमल उम्र में महत्वपूर्ण राजनीतिक सबक सिखाया।
जब उन्हें बंद कर दिया गया था, मीडिया की एक रंजिश भरे तबके ने उन्हें आंतकवादी कह कर बदनाम किया। ऐसा प्रतीत हो रहा था, कि भारतीय लोकतंत्र ने मुकदमे से पहले ही फैसला सुना दिया हो। नही तों क्या कारण हो सकता है कि एक सब्जी विक्रेता ने पांच साल के बच्चे को सब्जी बेचने से मना कर दिया, क्योंकि उसने उसकेे पिता के बारे में आतंकवादी वाली खबर देखी थी और उसे सच मान लिया था। यही हाल था तब एक स्थानीय फोन बूथ वाले ने हमें कश्मीर में अपने परिवार को फोन करने से इनकार कर दिया था। ऐसी घटनाएं रूटीन बननी शुरू हो गई थी जिसने हमें एक मुसलमान अबादी वाले इलाके में तबदील होने के लिए मज़बूर कर दिया जहाँ हमारा परिवार गुमनाम रह सकता था।
2003 में, दिल्ली की एक निचली अदालत नें अब्बू को मौत की सज़ा सुनाई। हमारे दिल दहशत और भविष्य की सोच में डूब गए। अल्लाह हम पर महरबान था। हम खुशकिस्मत थे। कश्मीर और दिल्ली, दोनों जगहों पर परिवार और दोस्तों के सहयोग से और सिविल सोसाइटी के मैम्बरों द्वारा आयोजित की गई मुहिम की बदौलत उन्हें आखिरकार 2004 में दिल्ली हाई कोर्ट ने बरी कर दिया और यही फैसला 2005 में सुप्रीम कोर्ट ने भी कायम रखा।
जब साल 2004 में अब्बू घर रहने के लिए वापिस आए तब हमारी खुशी का ठिकाना नहीं रहा। हमें बिल्कुल अंदाजा नही था कि अनहोनी अभी बहुत दूर नहीं थी। 5 फरवरी 2005 को दक्षिण दिल्ली के इलाके में उनके वकील की रिहाइश के बाहर एक अनजाने कातिल ने उनके शरीर में सात गोलियां दाग दी।
हमारा परिवार चिंता में डूब गया। इस बहुत दुखदाई घटना ने हमें हैरान किया कि ऐसी घटना ऐसे सुरक्षित स्थान पर कैसे हो सकती है । पर तब तक, तजरबे ने हमें बेचैनी वाले प्रश्न न पूछना सिखा दिया था। फिर एक चमतकार हुआः हमारा हीरो हमले से बच गया।
उनके जीवन और योगदान की एक बेमिशाल दास्तान है क्योंकि उसने दुनियां को बेहतर और निरपक्ष बनाने के लिए बहुत महनत की। वो हमारे लिए बहुत प्यारे पिता, दोस्त, गाईड, सलाहकार और दार्शनिक थे। वह जीवन भरपूर था, वह बच्चे की तरह हसते थे। वह बुजूर्गो का आदर करते थे।
डाक्टरों ने अब्बू के शरीर में से चार गोलियां सफल्तापूर्वक निकाल दी पर बाकी तीन को बहार निकालने पर उनकी जान को खतरा हो सकता था इस लिए वह शरीर में ही रहने दी। उनकी जान पर हमला करने के बाद-सुप्रीम कोर्ट ने उन्हें एक सुरक्षा कवच प्रदान किया। इसने हमारे डर को थोडा कम कर दिया। लेकिन इसका मतलब यह भी था कि वो लगातार निगरानी में थे। अनचाहे ध्यान खीचने की वजह से हम एक परिवार के तौर पर बहुत कम जनतक स्थानों पर जा सकते थे। हमारे घर आने वाले लोगों को सुरक्षा विवरण की नोट बुक में अपना वेरवा दर्ज कराना पडता था। कई लोगों ने हमसे मिलना बंद कर दिया। जबकि सुरक्षा कर्मचारी हर समय बदलते रहते थे पर अब्बू का सब के साथ बहुत ही अच्छा व्यवहार था।
उनकी गतिशीलता पर पाबंदियों अब्बू को मानवीय अधिकारों के लिए काम करने से कभी नहीं रोक पायी। तिहाड़ जेल की एक जोखिम भरी कोठी में दो साल की कैद में बिताया समय उन्होंने जमीर के कैदीयों (prisoners of conscience) और उनके परिवारों के लिए अकेले संघर्षों का सामना किया था। अपनी रिहाई के बाद, उन्होंने तुरन्त इस उद्देश्य के लिए संगठित करने की कोशिश की और राजनीतिक कैदियों को कानूनी सहायता के लिए सख्त मेहनत की। अपनी कोशिशों के कारण, उन्होंने न सिर्फ अलग-अलग भारतीय जेलों में बंद कश्मीरी राजनीतिक कैदियों, बल्कि कई और, जो पूरे भारत में न्याय और सम्मान के अलग-अलग संघर्षों से संबंधित थे, की सहायता की।
उनके जीवन का सबसे दुखदायी पल 9 फरवरी 2013 को आया, जब भारत सरकार ने संसद हमले के एक सह मुजरिम अफज़ल गुरू को फांसी दे दी। इस बदला-भरे क़त्ल की व्यापक रूप में निंदा की गई। सब को स्पष्ट था की इस ‘एक कौम के सामूहिक ज़मीर को संतुष्ट करने के लिए’ अफज़ल गुरू को बली का बकरा बनाया गया था। जेल में उसके साथ व्यतीत किये समय कारण तथा न्याय पालिका के अन्याय से हुई गुरू की मौत ने उन्हें बहुत गहरा ज़ख्म दिया। जब भी वह कर सकते थे उन्होंने अपना विरोध जाहिर किया। साल 2016 में गुरू की फांसी के यादगार समारोह के बाद, एक बार फिर उनको भारत सरकार ने गिरफतार कर लिया और तकरीबन 40 दिन के लिए कैद में रखा।
यह कहना की अब्बू सारे उद्देश्यों के लिए एक गहरा जीवन व्यतीत करते थे, एक छोटी सी बात है। उनके जीवन और योगदान की एक बेमिसाल दास्तान है क्योंकि उसने दुनियां को बेहतर और निष्पक्ष बनाने के लिए बहुत मेहनत की।
वो हमारे लिए बहुत प्यारे पिता, दोस्त, गाईड, सलाहकार और दार्शनिक थे। वह जीवन भरपूर था, वह बच्चे की तरह हसते थे। वह बुजूर्गो का आदर करते थे।
वह हमारे साथ व्यक्तिगत रूप में ना हो, लेकिन हम उस के द्वारा दी गई सीख को कभी नहीं भूलेंगे। उन्होंने हमें सिखाया -मुसीबतों के सामने मुस्कराना और हिम्मत के साथ सच के मार्ग पर चलना, चाहे सब कुछ अकेले ही क्यों ना करना पडे़।
सय्यद नुसरत गिलानी प्रौफैसर एस. ए. आर. गिलानी की बेटी और दिल्ली हाई कोर्ट में वकील है। सय्यद आतिफ गिलानी एस. ए. आर. गिलानी का बेटा और दिल्ली हाई कोर्ट में वकील है।
One thought on “कौन थे हमारे अब्बू -सय्यद अब्दुल रहमान गिलानी ?”